गंगा-जमुनी तहज़ीब का हिस्सा रहे महान शायर मिर्ज़ा गालिब को शहर बनारस से कुछ ऐसा खिंचाव महसूस हुआ कि उन्होंने उस पावन तीर्थ पर अपना सबसे लंबा शेर चिराग-ए-दैर लिख डाला। गालिब ने लिखा कि वहाँ श्रद्धालु गण शंख की तेज़ आवाज़ से सगीत रचते हैं और वाकई यह हिंदुस्तान का मक्का जैसा है। अब गालिब और उनके अनगिनत चाहने वालों को इस मिली-जुली संस्कृति से हटा दीजिए और देखिए कि हिंदुस्तान कैसा लगता है । वरिष्ठ पत्रकार सईद नकवी का नाटक कहाँ गए मुसलमान इसी सवाल का जवाब तलाशने कोशिश करते हैं। दरअसल, यह एक ऐसा मुद्दा है जिसको जातिवाद, हिंदू-मुस्लिम तनाव और पाकिस्तान-कश्मीर का शोर कुछ ज़्यादा ही प्रभावित करता है । इस विषय पर किसी भी बहस में हर कोई घनघोर तार्किक हो जाता है। ऐसे में सवाल यह है कि फिर रास्ता क्या है? तीखे व्यंग्य लेकिन चुटीले हास्य से भरपूर अपनी इस किताब में सईद नकवी, दादी-नानियों की कहानियों, दंतकथाओं और मुल्ला नसीरुद्दीन के दिलचस्प किस्सों के माध्यम से हमारे सामने एक आश्चर्यजनक संसार रचते हैं । क्या नकवी की यह रचना आपसी तनाव और संदेह की उन लपटों को बुझा पाएगी? मिली-जुली संस्कृति और साझी विरासत की वकालत करती एक शानदार किताब।
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